Friday, October 12, 2007

कितनी ही पीड़ाएं हैं

कितनी ही पीड़ाएं हैं
जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
ऐसी भी होती है स्थिरता
जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं

सुबह ओस से निकलती है
मन को गीला करने की जिम्मेदारी उस पर है
शाम को झांकती है बारिश से
बचे-खुचे को भिगो जाती है

धूप धीरे-धीरे जमा होती है
कमीज और पीठ के बीच की जगह में
रह-रहकर झुलसाती है

माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख होते

दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक खराब किस्म की कठोरता है ।
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1 comment:

उन्मुक्त said...

अच्छी कवितायें हैं लिखते चलिये।